पेश है निदा फाज़ली साहब की बहुचर्चित रचना ' माँ ' :
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे ,
आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी माँ
चिड़ियों के चहकार में गूँजे राधा-मोहन अली-अली ,
मुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंड़ी जैसी माँ
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें जाने कहाँ गई ,
फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी माँ
बेहतरीन ग़ज़ल| मकता कमाल का है .......दिल से मुबारकबाद|
ReplyDeleteचिड़ियों के चहकार में गूँजे राधा-मोहन अली-अली ,
ReplyDeleteमुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंड़ी जैसी माँ
अच्छी पंक्तिया ........
इसे भी पढ़कर कुछ कहे :-
आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ??
वाकई फाज़ली जी की बहुचर्चित रचना है। अच्छा लगा पढ़कर...धन्यवाद
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
कृपया कमेंट्स की सेटिंग से वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ..
क्या कहूँ ……………निशब्द कर दिया।
ReplyDeleteबहुत ही भावमय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteकल गल्ती से तारीख गलत दे दी गयी ..कृपया क्षमा करें ...साप्ताहिक काव्य मंच पर आज आपकी रचना है
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/2010/09/17-284.html
माँ शब्द का इससे अच्छा वर्णन हो ही नहीं सकता .. बहुत सुन्दर
ReplyDeleteKIYA COMMENTS DUN 'JUGNOO SOORAJ KO RAH NAHI BATA SAKTA.'
ReplyDeleteबीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,
ReplyDeleteदिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ